कपड़े का अचानक जल या फट जाना, घर पर पत्थर बरसना, क्यों होती हैं ये घटनाएं! जानें आखिर क्या है सच
मेंडिकल की पढ़ाई करके लंबे समय तक एक सफल डॉक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करने के बाद नरेंद्र दाभोलकर ने लोगों के दिमाग से अंधविश्वास को दूर करने के लिए एक मुहिम शुरू की. उनका मानना था कि जब तक लोगों के दिमाग से अंधविश्वास नामक बीमारी को खत्म नहीं किया जा सकता, पिछड़े समाज खासकर महिलाओं का उत्थान अधूरा है.
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इसम मुहिम से बहुत लोगों को फायदा हुआ तो कुछ को उनका कारोबार कम होता नजर आया. 20 अगस्त, 2013 को सुबह की सैर पर निकले नरेंद्र दाभोलकर की पुणे के ओंकारेश्वर मंदिर के पास दो बंदूकधारियों ने गोली मारकर हत्या कर दी. हमलावरों ने उन पर नजदीक से चार गोलियां चलाईं और मोटरसाइकिल पर सवार होकर भाग गए. दाभोलकर के सिर और सीने में दो गोलियां लगीं और उनकी मौके पर ही मौत हो गई.
1 नवंबर, 1945 को महाराष्ट्र के सतारा में नरेंद्र दाभोलकर का जन्म हुआ था. उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की स्थापना की और देशभर में अंधविश्वास के खिलाफ लोगों को जागरुक करने का काम किया. अंधविश्वास को लेकर उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं. इनमें एक पुस्तक है- ‘विश्वास और अंधविश्वास’. यह पुस्तक राजकमल से प्रकाशित हुई है. आज नरेंद्र दाभोलकर की पुण्यतिथि है. इस अवसर पर उन्हें याद करते हुए पढ़ें उनकी पुस्तक के चुनिंदा अंश-
स्त्री का मानसिक स्वास्थ्य और अंधविश्वास :
बहुत-सी महिलाएं ज्यादातर एक ही मानसिक तनाव में हमेशा नजर आती हैं. जैसे- उन पर पति का प्यार न होना, सास का सताना, परिवार में सम्मान न मिलना, पारिवारिक विसंवाद, लैंगिक अतृप्ति. इनसे उभरते तनावों के कारण स्त्री के व्यक्तित्व में एक दरार-सी पड़ जाती है. यह दरार किसी विशिष्ट समय, स्थल, व्यक्ति से जुड़ी होती है. जैसे- अमावस, पूर्णिमा, नवरात्रि के समय किसी देवी या देवता का शरीर में संचार होना जैसी घटनाएं अधिक मात्रा में होती हैं. अंबाबाई अथवा दत्त के स्थान पर अभुआने के प्रकार अधिक मात्रा में दिखाई देते हैं. अब यह शरीर में देवी-देवताओं का संचारना या अभुआना, यह कोई पाखंड नहीं होता. बल्कि एक तो वह प्रखर स्व-सम्मोहन की अवस्था होती है या ‘हिस्टीरिया’ यानी सौम्य मानसिक बीमारी. यह बीमारी प्रासंगिक होती है. धड़कनों का तेज होना, शरीर में कंपकंपी भरना, शरीर का उछलना, कोई सीने पर बैठा है ऐसा एहसास होना, गला दबाए जाने का आभास होना आदि सब मनोविकार हैं. धीरे-धीरे मरीज को इन बातों की आदत हो जाती है. इसका अर्थ ही ऐसा है कि कुछ दिनों के लिए ये प्रकार रुक जाते हैं और कुछ दिनों के बाद फिर से प्रकट हो जाते हैं. डॉक्टरों से इलाज करवाकर भी मरीज पूरी तरह से ठीक हो जाएगा ऐसा नहीं, क्योंकि इसका मूल कारण अलग ही होता है और जरूरत होती है उसे बदलने की.
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अगर घर-परिवार में जुल्म करनेवाली सास और शराबी पति होंगे तो मनोरुग्ण की यह स्थिति बार-बार दिखाई देती है. इससे विपरीत दूसरी तरफ देखा जाए तो इस बीमारी से थोड़ा आराम मिल जाए अथवा किसी ओझा या बाबा से मिलनेवाली सकारात्मक सूचनाओं से अच्छा लगने लगे तो यह सब ‘बाहर की ही कुछ बाधा थी’ ऐसी आशंका और भी दृढ़ हो जाती है. अचानक ही हाथ-पांव का जवाब देना, कोई चोट न होते हुए भी अंधापन आना, स्वर यंत्र ठीक-ठाक होने के बावजूद आवाज गुम होना, ये सब असल में ‘हिस्टेरिकल कन्वर्जन्स’ इस बीमारी की विशेषताएं हैं. इस बारे में डॉक्टरों को छोड़कर अन्य किसी बात का असर हो जाए तो उसकी नाट्यमयता के कारण पहले से ही बाहरी शक्तियों पर होनेवाला लोगों का विश्वास और दृढ़ हो जाता है. इसी के साथ ही परंपराओं की मान्यता, ज्ञानेंद्रियों का उद्दीपन, स्व-सम्मोहन आदि की वजह से महिलाएं किसी देवता ने उनके शरीर में प्रवेश किया है ऐसा कहकर या समझकर अभुआने लगती हैं, जिससे कई घंटों तक हुंकारना, शारीरिक संवेदनाओं का निष्क्रिय होना, किसी अनजानी भाषा में बड़बड़ाना आदि प्रकार महिलाओं के बारे में हो जाते हैं. इन सब बातों के पीछे होनेवाले वैज्ञानिक कारण मालूम न होने की वजह से इनके बारे में गूढ़ता बढ़ जाती है और इसी वजह से अंधविश्वासों का बढ़ना भी स्वाभाविक बनता है.
बदन पर भिलावे के निशान आना, किसी भी कपड़े का अपने आप फट जाना या जल जाना, अचानक ही घर पर पत्थरों का बरसना, खाने में गंदी चीजों का मिलना, घर की चीजें अपने आप हिलना आदि बातों को भानमती कहते हैं. इन सब बातों के पीछे होनेवाली सचाई हमारी समिति ने ढूंढ़कर निकाली है, जिससे पता चलता है कि इन सब बातों को अंजाम तक पहुंचाने में कोई स्त्री ही एजेंट का काम करती है. वैफल्यता और विसंवादी मानसिकता के कारण मनोविकृत होनेवाली स्त्री ही यह भानमती के विविध प्रकार करती है. यह ज्यादातर महिलाओं द्वारा ही संभव होता है, इसी कारण भानमती को अंजाम देनेवाली अधिकतर महिलाएं ही होती हैं.
मराठवाड़ा विभाग में शरीर में देवी का संचारना या अभुआना, घूमना, चिल्लाना, कुत्ते जैसा भौंकना ऐसे बरताव करनेवाली स्त्री को भानमती या केंगामति हो गई है, ऐसा कहा जाता है. इसमें सभी स्त्रियां ही होती हैं. गांवों में तो जमघट के रूप में यह होता है. कुछ सदियों पहले महिलाओं में इसी प्रकार के अंधविश्वास विदेशों में भी थे. कई महिलाओं को तो चुड़ैल समझकर जिंदा जलाया गया था. ये सब बातें आज वहां से पूरी तरह से नष्ट हो गई हैं, क्योंकि वहां की स्त्रियां शिक्षित हो गई हैं. उनका आर्थिक स्तर सुधर चुका है. उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी है, उनका सामाजिक स्तर बढ़ गया है. हमारे यहां इसी दिशा में कोशिशें होना जरूरी है.
मस्तिष्क में होनेवाले रासायनिक स्रावों की कमी, परिस्थिति के अनुसार उत्पन्न होनेवाले असहनीय मानसिक तनाव आदि के कारण ही गंभीर मानसिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं. अचानक वर्तन में होनेवाले इस बदलाव को उस स्त्री से संबंधित होनेवाले लोग समझ नहीं सकते, उन्हें वह अजीबोगरीब लगता है. तब इसका सबसे पहले स्पष्टीकरण प्रेतबाधा या किसी बाहरी शक्ति की भयानक बाधा का होता है. कई बार गर्भावस्था के दौरान और प्रसूति के वक्त आनेवाले तनाव के कारण प्रसूत महिला को यह बीमारी लग जाती है और उसकी जडे़ं भूतबाधा में ढूंढ़ी जाती हैं. परिणामतः इलाज के नाम पर उस महिला को कई अत्याचार सहने पड़ते हैं.
किताब के बारे में :
विश्वास क्या है? कब वह अंधविश्वास का रूप ले लेता है? हमारे संस्कार हमारे विचारों और विश्वासों पर क्या असर डालते हैं? समाज में प्रचलित धारणाएं कैसे धीरे-धीरे सामूहिक श्रद्धा और विश्वास का रूप ले लेती हैं. टेलीविजन जैसे आधुनिक आविष्कार के सामने मोबाइल साथ में लेकर बैठा व्यक्ति भी चमत्कारों, भविष्यवाणियों और भूत-प्रेतों से संबंधित कहानियों पर क्यों विश्वास करता रहता है? क्यों कोई समाज लौट-लौटकर धार्मिक जड़तावाद और प्रतिक्रियावादी-पश्चमुखी राजनीतिक और सामाजिक धारणाओं की तरफ जाता रहता है? क्या यह संसार किसी ईश्वर द्वारा की गई रचना है? या अपने कार्य-कारण के नियमों से चलनेवाला एक यंत्र है? ईश्वर के होने या न होने से हमारी सोच तथा जीवन-शैली पर क्या असर पड़ेगा? वह हमारे लिए क्या करता है और क्या नहीं करता? क्या वह खुद ही हमारी रचना है? मन क्या है, उसके रहस्य हमें कैसे प्रकाशित या दिग्भ्रमित करते हैं? फल-ज्योतिष और भूत-प्रेत हमारे मन के किस खाली और असहाय कोने में सहारा बनकर आते हैं? क्या अंधविश्वासों का विरोध नैतिकता का विरोध है? क्या धार्मिक जड़ताओं पर कुठाराघात करना सामाजिक व्यक्ति को नीति से स्खलित करता है? या इससे वह ज्यादा स्वनिर्भर, स्वायत्त, स्वतंत्र और सुखी होता है? स्त्रियों के जीवन में अंधविश्वासों और अंधश्रद्धा की क्या भूमिका होती है? वे ही क्यों अनेक अंधविश्वासों की कर्ता और विषय दोनों हो जाती हैं? इस पुस्तक की रचना इन तथा इन जैसे ही अनेक प्रश्नों को लेकर की गई है.
नरेंद्र दाभोलकर के अंधविश्वास या अंधश्रद्धा आंदोलन की वैचारिक-सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक पृष्ठभूमि इस पुस्तक में स्पष्ट तौर पर आ गई है जिसकी रचना उन्होंने आंदोलन के दौरान उठाए जानेवाले प्रश्नों और आशंकाओं का जवाब देने के लिए की है।